भारतीय नृत्य कला
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
प्राचीन प्रदर्शन कला के रूप में नृत्य और संगीत हमेशा से भारतीय लोगों के जीवन का हिस्सा रहा है। भारतीय धार्मिक साहित्य ने भारतीय लोगों के जीवन में नृत्य को एक महत्वपूर्ण गतिविधि के रूप में मान्यता दी है। भारत में प्राचीनतम सभ्यता के अवशेष, हड़प्पा सभ्यता के पुरातन स्थल से प्राप्त नृत्य करती लड़की की कांस्य की प्रतिमा सामाजिक मनोरंजन के साधन के रूप में नृत्य के महत्व पर प्रकाश डालती है।
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| मोहनजोदड़ो में मिली हड़प्पा/सिंधु सभ्यता की कांस्य नृत्यांगना। इसकी खोज अर्नेस्ट मैके ने 1926 में की थी। |
भीमबेटका में सामुदायिक नृत्य एक अन्य पुरातात्विक साक्ष्य है जो सामाजिक मनोरंजन के साधन के रूप में नृत्य के महत्व पर प्रकाश डालता है।
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| भीमबेटका में सामुदायिक नृत्य (रायसेन जिला, मध्य प्रदेश, भारत) |
भारतीय साहित्यिक परंपरा में नृत्य कला पर आलोचनात्मक लेखन की कोई कमी नहीं है, सिद्धांत और तकनीक दोनों के स्तर पर ऐसे कई ग्रंथ हैं जो भारतीय नृत्य कला के बारे में पर्याप्त जानकारी प्रदान करते हैं।
- गुफा चित्रकला, पत्थरों पर उत्कीर्णन, हड़प्पा सभ्यता में मिले साक्ष्य और वेदों,उपनिषदों, ब्राह्मणों और महाकाव्यों मे वर्नित साहित्यिक साक्ष्य।
- दूसरी अवधि - दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व से नौवीं शताब्दी ईस्वी तक है। भरहुत, सांची, भाजा, अमरावती और नागार्जुनकोंडा जैसे बौद्ध स्तूपों से साक्ष्य उपलब्ध हैं और एलोरा की गुफाएं और भारत के विभिन्न हिस्सों में मंदिर और विशेष रूप से गुप्त काल के शुरुआती मंदिर।
- तीसरी अवधि- 10वीं या 11वीं से 18वीं शताब्दी ईस्वी तक तीसरी अवधि में क्षेत्रीय साहित्य के विकास के साथ-साथ क्षेत्रीय वास्तुकला, मूर्तिकला, चित्रात्मक, संगीत और नृत्य शैलियों का उल्लेखनीय विकास हुआ।
भरत मुनि के नाट्य शास्त्र में एक पौराणिक कहानी है, कहानी के अनुसार जब देवता बोरियत से ऊब गए, तब उन्होंने भगवान ब्रह्मा से आनंदमय मनोरंजन का साधन बनाने का अनुरोध किया, ब्रह्मा ने चार वेदों के कुछ पहलुओं को जोड़ा और पांचवे वेद को नाट्य वेद के रूप में बनाया। वह नव निर्मित नाट्य वेद ऋग्वेद से नृत्य, नाटक और संगीत और पथ्य (शब्द), यजुर्वेद से अभिनय (इशारा) रूप, सामवेद से गीत (संगीत) और अथर्व वेद से रस (भावनाओं) के समामेलन को लेकर बनाया गया।
नाट्य शास्त्र के अनुसार नृत्य के पहलू
नाट्य शास्त्र के अनुसार, भारतीय शास्त्रीय नृत्य के दो बुनियादी पहलू हैं :-
- लास्य- यह अनुग्रह, भाव, रस और अभिनय को दर्शाता है। यह एक कला के रूप में नृत्य की स्त्री विशेषताओं का प्रतीक है।
- तांडव- यह नृत्य के पुरुष पहलुओं का प्रतीक है और ताल और गति पर अधिक जोर देता है।
नंदिकेश्वर के अभिनय दर्पण के अनुसार, जो नृत्य पर एक प्रसिद्ध ग्रंथ है, नृत्य की कला को तीन मूल तत्वों में विभाजित किया गया है:-
- नृत्त- यह नृत्य के मूल चरणों को इंगित करता है, लयबद्ध रूप से किया जाता है लेकिन किसी भी अभिव्यक्ति या मनोदशा से रहित होता है।
नाट्य- इसका अर्थ नाटकीय प्रतिनिधित्व है और उस कहानी को संदर्भित करता है जिसे नृत्य पाठ के माध्यम से दर्शाया जाता है।
नृत्य - नृत्य से तात्पर्य नृत्य के माध्यम से उत्पन्न भावनाओं और विभिन्न तरीकों और भावनाओं से है। यह नृत्य में मुद्रा सहित माइम और अभिव्यक्ति के विभिन्न तरीकों को शामिल करता है।
नंदिकेश्वर नायक-नायिका भाव को और विस्तृत करते हैं, जिसमें शाश्वत देवता को नायक के रूप में देखा जाता है और नृत्य करने वाला भक्त अभिनय की नायिका है। नंदिकेश्वर ने नौ रस या भावनाएँ को बताया हैं जो नृत्य के माध्यम से व्यक्त की जाती हैं। ये नौ रस हैं-
1. श्रृंगारा 2. रौद्र 3. बिभत्सा 4. वीरा 5. शांत 6. हास्य 7. करुणा 8. भयानक 9.अद्बुता
ये मनोदशाएं और अभिव्यक्ति मुद्राओं के उपयोग के माध्यम से व्यक्त की जाती हैं- हाथ के इशारों और शरीर की मुद्राओं का एक संयोजन। 108 मौलिक मुद्राएं हैं, जिनमें से एक संयोजन का उपयोग किसी विशेष भावना को चित्रित करने के लिए किया जाता है।
भारतीय शास्त्रीय नृत्य रूप
नृत्य की विशिष्ट शैलियाँ अपनी विशिष्ट बारीकियों के साथ भारत के विभिन्न क्षेत्रों में विकसित हुई हैं। हालाँकि, ये सभी नृत्य रूप नाट्यशास्त्र में निर्धारित बुनियादी नियमों और दिशानिर्देशों द्वारा शासित होते हैं। सिद्धांतत नियम यह है कि ज्ञान का सच्चा हस्तांतरण केवल एक गुरु के माध्यम से ही हो सकता है। गुरु विभिन्न परंपराओं- संप्रदायों के ज्ञान को शिष्य गुरु द्रारा ग्रहण करता है। यह 'गुरु-शिष्य परम्परा' भारतीय शास्त्रीय कला का मूल रूप है। यह गुरु शिष्य परम्परा 'भारतीय शास्त्रीय कला का मूल रूप है।वर्तमान में, संगीत नाटक अकादमी ने भारत में आठ शास्त्रीय नृत्य को मान्यता दी, जिनका वर्णन इस प्रकार किया गया है:-
सभी शास्त्रीय नृत्यों में भरतनाट्यम नृत्य का सबसे पुराना रूप है। इसका नाम भरत मुनि और नाट्यम से निकला है जिसका अर्थ तमिल में नृत्य है। हालाँकि, अन्य स्कूलों ने भरत के नाम को भाव, राग और ताल के रूप में वर्णित किया है। इस नृत्य रूप की उत्पत्ति का पता 'सादिर' से लगाया जा सकता है - तमिलनाडु में मंदिर के नर्तकों या 'देवदासियों' का एकल नृत्य प्रदर्शन, इसलिए इसे 'दशियतम' के रूप में भी जाना जाता है। तमिलनाडु में देवदासी की प्रथा के पतन के साथ, कला भी लगभग विलुप्त हो गई थी। हालांकि, एक प्रमुख स्वतंत्रता सेनानी ई. कृष्णा अय्यर के प्रयासों ने इस नृत्य रूप को फिर से पुनर्जीवित किया, पहले यह नृत्य एकल महिला नर्तकियों द्वारा किया जाता था; तब से यह पुरुष और समूह कलाकारों के बीच भी तेजी से लोकप्रिय हो गया है। रुक्मीमी देवी अरुंडेल भरतनाट्यम की एक अन्य प्रसिद्ध प्रचारक हैं, जिन्हें नृत्य को वैश्विक पहचान देने के लिए याद किया जाता है।
19वीं शताब्दी की शुरुआत में, तंजावुर के चार नृत्य शिक्षकों, जिन्हें तंजौर चौकड़ी के नाम से भी जाना जाता है, जिनका नाम चिन्निया, पोन्निया वडिवेलु और शिवानंदम है, ने भरतनाट्यम पाठ के तत्वों को परिभाषित किया। य़े हैं-
- अलारिप्पु- इसमें मूल नृत्य मुद्राएं शामिल हैं जो लयबद्ध संगीत शब्दांश के साथ ताल मिला कर किया जाता हैं। इसका अर्थ है भगवान का आशीर्वाद लेना।
- जातिस्वरम - इसमें भावों से रहित विभिन्न पोज़ और मूवमेंट शामिल हैं।
- शब्दम- यह व्यक्त शब्दों के साथ नाटकीय तत्व है। जिसमें गाने के साथ अभिनयम शामिल है।
- वर्णम - इसमें नृत्य और भावनाएँ शामिल हैं और कहानी को व्यक्त करने के लिए इसे ताल और राग के साथ जोड़ा जाता है।
- पदम- इसमें आध्यात्मिक संदेश के भाव समाहित होते हैं, संगीत हल्का हो जाता है नृत्य भावुक हो जाता है।
- जवाली- इसमें तेज गति से किए गए लघु प्रेम गीत शामिल हैं।
- थिल्लाना- यह प्रदर्शन का अंतिम चरण है, और इसमें तेज गति और जटिल लयबद्ध विविधताओं के साथ शुद्ध नृत्य शामिल है।
- भरतनाट्यम को अक्सर अग्नि नृत्य के रूप में जाना जाता है क्योंकि यह मानव शरीर में आग की अभिव्यक्ति है। भरतनाट्यम में अधिकांश लयबद्ध नृत्य गति एक नाचती हुई लौ से मिलते जुलते हैं।
- इस नृत्य रूप में, तांडव और लास्य दोनों पहलुओं पर समान जोर दिया जाता है, जिसमें मुद्रा पर अधिक जोर दिया जाता है।
- मुख्य मुद्राओं में से एक कटक मुख हस्त है जिसमें तीन अंगुलियों को 'ओम' के प्रतीक के रूप में जोड़ा जाता है।
- भरतनाट्यम नृत्य में ज्यादातर घुटने मुड़े होते हैं और वजन दोनों पैरों में समान रूप से वितरित होता है।
- इसमें 'एकचार्य लस्यम' शैली की भी विशेषता है जिसमें एक नर्तक कई अलग-अलग भूमिकाएँ निभाता है।
इस नृत्य कला की उत्पत्ति आंध्र प्रेदश के एक गांव कुस्सेलवपुरी में हुई थी , इस गांव को कुचेलपुरम या कुचिपुड़ी भी कहा जाता था, इसी गांव के नाम से ही इस नृत्य कला का नाम कुचिपुड़ी पड़ा। तथा इस नित्य को करने वाले कलाकारों के समूह को कुसेलवास के नाम से जाना जाता था। सत्रहवीं शताब्दी के आसपास भगवान श्री कृष्ण के भक्त सिद्धेन्द्र योगी ने इस कला परम्परा को औपचारिक तौर पर व्य्वस्थित कर इसपर नियम बनाए। इसके लिए उन्होंने एक किताब लिखी जिसका नाम था ‘भामा कल्पम”. इस नृत्य कला को मंदिर में पुरुष ब्राह्मण कलाकारो द्वारा किया जाता था। भगवत सम्प्रदाय से जुड़े मंदिर के ब्रामणो का इस नृत्य कला पर एकाधिकार था।
कुचिपुड़ी नृत्य कला में की जाने वाले नाटक का मुख्य विषयवस्तु भागवत पुराण की कहानी है. इस कहानी में भगवन श्री कृष्ण की सबसे ईर्षालु पत्नी सत्यभामा की कहानी है, जो अपने दिव्य पति को उनकी सोलह हजार पत्नियों के साथ साझा नहीं करना चाहती है और स्वयं को एक कोठरी में बंद कर लेती है और कभी बाहर नहीं निकलने का प्रण करती है. फिर माधवी, सत्यभामा और भगवान श्री कृष्ण के बीच सामंजस्य स्थापित करने के लिए एक अच्छे और बुद्धिमान मध्यस्थ की भूमिका निभाती है. पारम्परिक तौर से स्त्रियों की भी भूमिका पुरुषो द्वारा निभाई जाती रही है,जिन्हे भगवाथलूस कहा जाता है. इस नृत्य कला में सत्यभामा की भूमिका सबसे लोकप्रिय और प्रतिष्ठित है. यह आधुनिक भारत के सबसे लोकप्रिय नृत्य नाटिका के रूप में जाना जाता है। सत्यभामा के केंद्रीय पात्र होने से ही इसे भामा कल्पम भी कहते है।
अन्य लोकप्रिय कुचिपुड़ी नृत्य नाटकों में उषा परिणयम, प्रह्लाद चरित्रम, और गोला कलापम है। इसमे प्रत्येक अभिनेता के प्रवेश के लिये एक गीत होता है, जिसके द्वारा वह खुद का परिचय करता है। सोलहवी शताब्दी के कई शिलालेख और साहित्यिक स्रोत में इस नृत्य का उल्लेख मिलता है। सत्रहवीं शताब्दी में गोलकुंडा और विजयनगर के शासको के संरक्षण में यह खूब फला-फुला। 1668 में गोलगुंडा के नबाब अब्दुल हुसन तहनिशाह के सामने कुछ ब्राह्मण कलाकारों ने नृत्य का प्रदर्शन किया, नृत्य देखकर नवाब बहुत प्रभावित हुआ, और उसने प्रदर्शन में भाग लेने वाले ब्राह्मणो को वह गांव ही दान कर दिया जहा से इस नृत्य की शुरुआत हुई थी। इसके बाद उन ब्राह्मणो के वंशज परिवारों ने इस परम्परा को आगे बढ़ाया। यह परंपरा आज भी जीवित है और कुचेलपुरम या कुचिपुड़ी गांव में समाज के लोग प्रतिवर्ष इसका प्रदर्शन करते है। इस गांव के ही लक्ष्मीनारायण शास्त्री इस नृत्य अभिवयक्ति के महान कलाकार है। उन्होंने व्यक्तिगत रूप से एक पीतल की थाली के रिम पर संतुलन बना कर नृत्य करने की शैली विकसित की, जिसे वह तरंगम कहते है। उनके शिष्य वेम्पति चिन्ना सत्यम ने भी इस परंपरा को बखूबी बढ़ाया है।
20वी शताब्दी के पहले तक यह कला मुखयतः गावो तक ही सिमटा था तथा निस्तेज और लगभग अस्तित्वविहीन हो चूका था। लेकिन २०वी सदी के शुरुआती समय में बालसरस्वति और रागिनी देवी के प्रयासों से इसका उत्थान हुआ। लक्ष्मीनारायण शास्त्री के प्रयसो ने भी इसके उत्थान में मदद की जिसमे शामिल है- समूह नृत्य की जगह एकल नृत्य परम्परा की शुरुआत तथा महिला कलाकारों की भागीदारी को प्रोत्साहन।
कुचिपुड़ी नृत्य की कुछ विशेषताएं निम्नलिखित हैं:-
- अधिकांश कुचिपुड़ी नृत्य कथावस्तु भागवत पुराण की कहानियों पर आधारित हैं।
- प्रत्येक मुख्य पात्र एक "दारू" के साथ मंच पर अपना परिचय देता है, जो नृत्य और गीत की एक छोटी सी रचना है, जिसे विशेष रूप से प्रत्येक चरित्र के रहस्योद्घाटन के लिए कोरियोग्राफ किया जाता है।
- इस नृत्य में शास्त्रीय नृत्य के सभी तीन घटक शामिल हैं: नृत्त,नृत्य और नाट्य। यह भरतनाट्यम के समान है लेकिन इसकी अपनी विशेषताएं हैं।
नृत्य भाग - इसका भाग है कावुतवांस जिसमें कलाबाजी शामिल है। इसे नृत्त (शुद्ध नृत्य) के रूप में भी किया जा सकता है।
- कुचिपुड़ी में, नर्तक एक गायक की भूमिका को स्वयं भी निभा सकता हैं। इसलिए, यह एक नृत्य-नाटक बन गया है।
- कुचिपुड़ी नृत्य शैली मानवीय और सांसारिक तत्वों की अभिव्यक्ति है।
- कुचिपुड़ी नृत्य शैली में लास्य और तांडव दोनों तत्व महत्वपूर्ण हैं।
- मंडूक शब्दम- इसमें एक मेढक की कहानी नृत्य द्वारा बताया जाता है।
- तरंगम- इसमें नर्तक/नर्तकी सिर पर पानी के बर्तन या दीयों के एक सेट को रखकर एक पीतल की प्लेट के किनारे पर अपने पैरों को संतुलित करके नृत्य प्रदर्शन करता है।
- जला चित्र नृत्यं- इस नृत्य प्रक्रिया में, नर्तक नृत्य करते समय अपने पैर की उंगलियों से फर्श पर चित्र बनाता है।
कथकली केरल का एक नृत्य-नाटक है। इस नृत्य-नाटक के दो रूप है, रामनाट्टम और कृष्णट्टम। रामनाट्टम में रामायण और कृष्णट्टम में महाभारत के प्रसंगों का वर्णन करते हुए सामंतो के संरक्षण में यह नृत्यकला मंदिर में विकसित हुए। ये लोक नाटक परंपराएं बाद में कथकली का स्रोत बन गईं, जिसने इसका नाम ‘कथ’ मतलब कहानी और ‘कली’ मतलब नाटक के रूप में लिया। यह कुडियाट्टम (एक प्रकार का उच्च शैली का संस्कृत नाटक परंपरा) और अन्य प्राचीन मार्शल-आर्ट कलारिपयाट्टू के सयोजन से बना है। यह संगीत, नृत्य और नाटक का अद्भुत संयोजन है। इस नृत्यकला में देवताओ,राक्षसो, संतो और दिव्य प्राणियों की जीवन और कार्यो से सम्बन्धित अलौकिक और पौराणिक पहलुओं को नृत्य-नाटक विषय के रूप में लिया जाता है।
कुडियाट्टम नौवीं और दसवीं शताब्दी से ही चला आ रहा है। समकालीन कथकली, स्वतंत्र रूप से सत्रहवीं सदी में अत्यधिक रूपवादी और विस्तृत नृत्य-नाटक के रूप में उभरा। कथकली में नर्तक कुछ बोलते नहीं है बल्कि इसका नाट्य गीत मणिप्रवालम में गाया जाता है ,जो की संस्कृत से समृद्ध एक प्रकार की मलयालम है। हालाँकि, सामंती व्यवस्था के कमजोर होने साथ, कथकली में एक कला के रूप में गिरावट शुरू हो गई। इसे 1930 में मुकुंद राजा के संरक्षण में प्रसिद्ध मलयाली कवि वल्लथोल नारायण मेनन द्वारा पुनर्जीवित किया गया। इसके लिए उन्होंने 1936 में केरल कला मंडलम संस्थान की स्थापना की। साथ ही इस संस्थान यहाँ पढ़ाने के लिए के.पी. कुंजू कुरूप, टी. चंदू पणिक्कर, टी. रामुननी नायर, गुरु गोपीनाथ, वि. कुंछू नायर, चेंगननुर रमन पिल्लै, एम.विष्णु नम्बूदरी, और कलामंडलम कृष्णन नायर जैसे प्रसिद्ध कलाकारों को आमंत्रित किया।
कथकली नृत्य की कुछ विशेषताएं निम्नलिखित हैं:-
- कथकली मूल रूप से पुरुष नर्तको द्वारा की जाती है, अधिकांशतः पुरुष ही महिलाओ की भूमिका निभाते है, परन्तु कुछ समय से महिलाओ को भी इसमें शमिल किया जाने लगा है।
- इसमें नृत्य और नाटक दोनों शामिल हैं और दोनों को स्पष्ट रूप से अलग नहीं किया जा सकता है।
- कथकली की वेशभूषा और श्रृंगार कथकली प्रदर्शन की प्रतीकात्मक बारीकियों को दर्शाता है। कथकली की मुख्य विशेषता चेहरे की मांसपेशियों की विभिन्न गतिविधियां है। कथकली के अलावा कोई और नृत्य भौहें, आँखो और निचली पलकों का प्रयोग नहीं करता है। इस नृत्य में चेहरा विभिन्न परस्पर विरोधी भावों का एक खेल का मैदान बन जाता है। अलग-अलग पात्रों की विशिष्ट पहचान के लिए विस्तृत शृंगार किया जाता है।
- कथकली में प्रॉप्स का कम से कम इस्तेमाल होता है। हालांकि, विभिन्न पात्रों के लिए एक हेड गियर के साथ बहुत विस्तृत चेहरे का मेकअप उपयोग किया जाता है। चहरे का मेकअप करने के लिया अलग-अलग रंगों का उपयोग किया जाता है, इन रंगो का अपना अलग महत्व होता है जो निम्नलिखित हैं:-
* लाल- नाक के बगल में लाल रंग से चहरे को रंगा जाता है ,यह राजसी गौरव का संकेत देता हैं।
* पीला- इसका उपयोग संतों और महिलाओं के गुण दर्शाने के लिए किया जाता है।
* पूरी तरह से लाल रंग से रंगा चेहरा- बुराई और उग्र भावना को इंगित करता है।
* सफेद दाढ़ी- उच्च चेतना और देवत्व के भाव होने का संकेत देता है।
- कथकली संगीत की गायन शैली को एक विशिष्ट सोपान शैली में विकसित किया गया है, जिसकी गति बहुत धीमी होती है। इसमें दो मुख्य संगीतकार होते हैं, जिसमें मुख्य संगीतकार को ‘पोनानी’ और दूसरे को ‘सिनकिडी’ कहा जाता है। दो और संगीतकार चेन्दा और मदालम (एक प्रकार का ढोल) नामक वाद्ययंत्र बजाते है। ढोल की निरंतर ध्वनि के साथ कथकली पाठ की शुरुआत चेन्दा के साथ और अंत मदालम के साथ होता है।
- कथकली गीतों के लिए इस्तेमाल की जाने वाली भाषा मणिप्रवलम है, जो मलयालम और संस्कृत का मिश्रण है।
- कल्याण सौगन्धिकम, बाली विजयम, लवणासुरावधम, नल चरितंम और सीता स्वयंवरम इसके प्रसिद्ध नृत्य नाटकों में से एक है।
- कथकली आम तौर पर खुली जगह में बने थिएटर में किया जाता है यह जगह आमतौर पर मंदिर प्रांगण का हरियाली वाला क्षेत्र होता है। हरे-भरे पेड़-पौधें पृष्ठभूमि का काम करते है। प्रकाश के लिए एक पीतल के दीपक का उपयोग किया जाता है। अब कही कही विधुत बल्बों का भी उपयोग किया जाने लगा है।
मोहिनीअट्टम का अर्थ है ‘एक जादूगरनी का नृत्य’ यह महिलाओं द्वारा किया जाने वाला केरल का एक एकल नृत्य है। इस नृत्य की शुरुआत केरल के सुचिन्द्रम और त्रिपुनिथुरा मंदिरो से जुड़ी है। इस नृत्य का उल्लेख 934 ई. के नेदूमपुरा तली शिलालेख में मिलता है। 19वी. सदी में त्रावणकोर के एक कवी राजा स्वाति तिरुनल के संरक्षण में दरबार के दो नृत्य गुरु और भाई शिवानन्दम और वाडिवेलु ने भरतनाट्यम के समान मोहिनीअट्टम के एकल प्रदर्शन के विकास में योगदान दिया। परन्तु इसके बाद इसके संरक्षण पर ध्यान नहीं दिया गया जिसकी वजह से यह कला गुमनामी के अँधेरे में छिप गया। लेकिन बाद में प्रसिद्ध मलयाली कवि वि. एन. मेनन ने कल्याणी अम्मा के साथ मिलकर इस कला को पुनर्जीवित किया।
मोहिनीअट्टम नृत्य की कुछ विशेषताएं निम्नलिखित हैं:-
- पारम्परिक रूप में मोहिनीअट्टम नृत्य में भगवान विष्णु के मोहिनी रूप धारण कर भस्मासुर का विनाश करने की कथा का मंचन होता है।
- मोहिनीअट्टम वादन में नृत्य की सुंदरता और विनीत भाव प्रमुख होता है। इसलिए यह मुख्य रूप से महिला नर्तकियों द्वारा किया जाता है।
- मोहिनीअट्टम कथकली की सौम्यता और भरतनाट्यम की उत्साह और भव्यता को एक साथ जोड़ती है। इसमें कदमों की थाप का स्पष्ट अभाव है और कदमों का उपयोग सौम्य तरीके से किया जाता है।
- मोहिनीअट्टम में वेशभूषा का विशेष महत्व है, जिसमें सफेद और धूमिल सफ़ेद(ऑफ-व्हाइट) प्रमुख रंग हैं जिसमे सोने के रंग के जरी वस्त्र बेल बूटेदार डिजाइनों की उपस्थिति होती है। इसमें चेहरे पर व्यापक मेकअप नहीं किया जाता है। नर्तकी अपने टखनों पर चमड़े का पट्टा जिसमे घंटियों लगी रहती है , पहनती है।
- ‘अरवाकुल या अतवस’ चालीस बुनियादी नृत्य मुद्राओ का संग्रह है।
- उपयोग किए जाने वाले संगीत वाद्ययंत्र हैं झांझ, वीणा, ढोल-बांसुरी आदि।
- मोहिनीअट्टम नृत्य का प्रारम्भ चोल्केतु के गायन के साथ होता है।
कवि वल्लथोल ने 1936 में जब कला मंडलम की स्थापना कथकली की प्रशिक्षण के लिए की थी, तब उन्होंने इसके साथ मोहिनीअट्टम की परंपरा को भी जीवित रखा और इसके भी प्रशिक्षण की व्यवस्था की। कल्याणी माधवी और कृष्णा पणीक्कर जैसे कलाकारों ने यहाँ प्रशिक्षण दिया।
प्रमुख कलाकार
शातना राव, सत्यभामा, क्षेमवती और सुगन्धि इस नृत्य के जाने माने कलाकार है। कनक रेले और भारती शिवाजी जैसे कलाकारों ने इसमें वैज्ञानिक दृष्टिकोण का उपयोग करके इसे नयी लोकप्रियता दी। अन्य लोकप्रिय कलाकार है सुंनदा नायर, कलामंडलम क्षेमावठी, माधुरी अम्मा, जयप्रभा मेनन आदि।
- इसमें भावनाओं को व्यक्त करने के लिए मुद्रा और अंग-विन्यास भरतनाट्यम के समान है।
- त्रिभंग मुद्राएं, यानी शरीर का तीन मिश्रित रूप ओडिसी नृत्य रूप के लिए सहज मुद्रा है। साथ ही हाथों को फैलाकर ‘चौक’ की मुद्रा पुरुषत्व को दर्शाती है।
- नृत्य के दौरान, निचला शरीर काफी हद तक स्थिर रहता है और धड़ गतिमान होता है। नृत्य भाग के दौरान भावों को व्यक्त करने के लिए हाथ के इशारे महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
- ओडिसी नृत्य अपनी सुंदरता, कामुकता और सजीलापन के मेल के साथ अद्वितीय नृत्यकला है। नर्तक अपने शरीर के साथ जटिल ज्यामितीय आकार और पैटर्न बनाते हैं। इसलिए इसे गतिशील 'मूर्तिकला' के रूप में भी जाना जाता है।
- ओडिसी नृत्य हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत के साथ होता है और आमतौर पर इस्तेमाल किए जाने वाले वाद्ययंत्र हैं मंजीरा, पखवाज, सितार, बांसुरी आदि।
- जयदेव द्वारा लिखित गीत गोविंदा के गीतों का प्रयोग कुछ स्थानीय कवियों की रचनाओं के साथ किया जाता है।
- महिला नर्तक विशेष केश सज़्ज़ा करती है ,साथ ही चांदी के आभूषण, लम्बी हार आदि के साथ पहनती है।
- ओडिसी नृत्य के कुछ अन्य आधारभूत अवयव:-
- लखनऊ- इस घरानें की शुरुआत नवाब वाज़िद अली खान के समय हुई। उसके शासनकाल में यह अपने चरम पर पहुंच गया। यह अभिव्यक्ति(एक्सप्रेशन) और अनुग्रह(ग्रेस) को अधिक महत्व देता है।
- जयपुर- यह भानु जी महाराज द्वारा शुरू किया गया। इसने प्रवाह, गति और लंबी लयबद्ध पैटर्न पर जोर दिया जाता है।
- रायगढ़- इसकी शुरुआत राजा चक्रधर सिंह के संरक्षण में हुई। इसमें पैरों के ताल/थाप के साथ संगीत के ताल को मिलाया जाता है।
- बनारस- जानकीप्रसाद के संरक्षण इसकी शुरुआत हुई। इसमें समरूपता पर विशेष जोर दिया जाता है।
- कथक नृत्य शैली में जटिल फुटवर्क और संगीत के ताल से फुटवर्क को मिलाया जाता है।
- कथक को आमतौर पर ध्रुपद संगीत के साथ प्रदर्शन किया जाता है। मुगल काल के दौरान तराना, ठुमरी और गजल भी इसमें जोड़े गए और आज भी कत्थक का प्रदर्शन इन तीनों के साथ किया जाता है।
- कत्थक प्रदर्शन में कई आख्यान होते है, उन आख्यान के कुछ तत्व निम्न प्रकार है-
मणिपुर नृत्य मदिंर प्रांगण में रातभर चलने वाला प्रदर्शन है। इसका प्रदर्शन संकीर्तन के साथ विवाह समारोह, कान छेदने, अंतेष्टि, शिशु के जन्म के समय या शिशु को पहली बार अन्न देने के अवसरों पर किया जाता है।
मणिपुर नृत्य की कुछ विशेषताएं इस प्रकार हैं-
- यह आमतौर पर महिलाओं द्वारा किया जाता है। इसमें महिलाओं के दो समूह होते हैं जिन्हें नुपी भाषाक कहते हैं, द्वारा गीत गाया जाता हैं।
- इसमें मध्ययुगीन काल के वैष्णव संत कवियों की मूल रचनाओं जैसे चंडीदास, विद्यापति और जयदेव की रचनाओं को मैतेई (Meitei) भाषा में अनुवाद करके उपयोग किया जाता हैं।
- मणिपुरी नृत्य अकसर समूहों में किया जाता हैं। परन्तु रासलीला के कुछ नृत्य एकल प्रदर्शित किया जाता हैं। बसंतरस, कुंजरस, महारस, और नित्यरस रासलीला के विभिन्न प्रारूप है।
- रासलीला(राधा-कृष्ण प्रेम कहानी) मणिपुरी नृत्य प्रदर्शन का एक बारम्बार किया जाने वाला विषय है।
- मणिपुर नृत्य भक्ति पर जोर देने में अद्वितीय है, इसलिए इसमें कामुकता का आभाव होता है।
- नृत्य करने वाले/वाली का चेहरा एक पतले घूंघट से ढका हुआ होता है और इसमें चेहरे की अभिव्यक्ति कम महत्व रखती है, हाथ के इशारे और पैरों की कोमल गति महत्वपूर्ण है।
- नृत्य करने वाली महिला अद्वितीय लंबी स्कर्ट पहनती हैं। वह मुख्य रूप से हाथ और घुटने की स्थिति की धीमी और शालीन गति करते हुए नृत्य करती हैं।
- जबकि नृत्य में तांडव और लस्या दोनों शामिल होते हैं, बाद वाले पर अधिक जोर दिया जाता है।
- नागा बंध मुद्रा मणिपुरी नृत्य रूप की एक महत्वपूर्ण मुद्रा है जिसमें नृत्य करने वाला/वाली शरीर को 8(आठ) के आकार में मोड़ता है।
- नृत्य के दरम्यान बजने वाले वाद्य यंत्र हैं- ढोल, खरताल, बाँसुरी आदि।
- थांग-टा नामक मार्शल आर्ट का सयोंजन पारंपरिक मणिपुरी नृत्य के साथ कर इसे और रोचक बना दिया गया है।
प्रमुख कलाकार
झावेरी बहनें-नयना, सुवर्णा ,रंजना और दर्शना , गुरु अमोबी सिंह, ओझा बाबू सिंह, महावीर, जमुना देवी, राजकुमार सिंहजीत सिंह, गुरु बिपिन सिंघा, चारु सिंह, प्रिया गोपाल साना, कलावती देवी, बिम्बावती, प्रीति पटेल आदि, इस कला के जाने माने कलाकार हैं।
आधुनिक रूप में सत्रिया नृत्य की शुरुआत वैष्णव संत शंकरदेव ने 15वीं शताब्दी ई. में असम में की थी। असम के वैष्णव मठो को सत्र कहा जाता है, आरम्भिक काल में इन मठो में भगवान विष्णु और उनके अवतार श्री कृष्ण के ऊपर केंद्रित विषयवस्तु पर नृत्य प्रदर्शन किया जाता था। कालांतर में इन्ही मठो के नाम पर इस नृत्य कला का नाम सत्रिया पडा। इसका भरत मुनि के प्राचीन ग्रंथ 'नाट्य शास्त्र' में भी उल्लेख मिलता है। यह भक्ति आंदोलन से प्रेरित नृत्य कला है।
सत्रिया नृत्य की कुछ विशेषताओं में शामिल हैं:
नृत्य रूप असम में प्रचलित विभिन्न नृत्य रूपों का एक समामेलन था, मुख्यतः ओजापाली और देवदासी।
सत्रिया पाठों का फोकस, नृत्य का भक्ति पहलू है और विष्णु की पौराणिक कहानियों खासकर उनके अवतार श्री कृष्णा की लीला इसका केंद्रीय विषयवस्तु है।
सत्रिया नृत्य में नृत्त, नृत्य और नाट्य भी शामिल हैं।
सत्रिया नृत्य आम तौर पर पुरुष भिक्षुओं द्वारा समूह में किया जाता है जिन्हें 'भोक्त' के रूप में जाना जाता है, उनके द्वारा यह नृत्य दैनिक अनुष्ठानों या त्योहारों पर भी होता है।
खोल (ढोल), झांझ (मंजीरा) और बांसुरी इस नृत्य शैली के प्रमुख वाद्य यंत्र हैं। शंकरदेव के गीतों को ‘बोरगीत’ के नाम से जाना जाता है, को नृत्य के समय बजाया जाता है।
सत्रिया में फुटवर्क के साथ-साथ लयबद्ध नृत्य मुद्राओं पर बहुत जोर दिया गया है। यह लास्य और तांडव दोनों तत्वों को जोड़ती है।
नृत्य परंपराओं में हाथ के इशारों और फुटवर्क के संबंध में नियमों को सख्ती से निर्धारित किया गया है, और ये जो हाथों के इशारें और फुटवर्क है ,नृत्य में बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका निभातें है।
पुरुष नर्तकों द्वारा पहनी जाने वाली वेशभूषा धोती, और पगड़ी हैं, जबकि महिलाएं पारंपरिक असमिया आभूषण पहनती हैं, साथ ही पैट रेशम जिसे शहतूत रेशम भी कहते है, से बनी 'घुरी और चादर' पहनती हैं। कमर पर पहनने वाला कपड़ा पुरुषों और महिलाओं दोनों द्वारा पहना जाता है।
आधुनिक समय में, सत्रिया नृत्य दो अलग-अलग धाराओं में विकसित हुआ है- ज्ञान-भयनार नच और खरमनार नच।
अंकिआ नाट: एक प्रकार का सत्रीय, इसमें नाटक या संगीत-नाटक शामिल है। यह मूल रूप से असम- मैथिली मिश्रित भाषा में लिखा गया था जिसे ब्रजावली कहा जाता है। इसे ‘भाउना’ भी कहा जाता है और इसमें भगवान कृष्ण की कहानियां शामिल हैं।
प्रमुख कलाकार
स्वर्गीय मोनीराम दत्ता मुक्तियार बरबयान,स्वर्गीय बापुरम बयान अट्टाई,स्वर्गीय रोसेश्वर सैकिया बरबायन, स्वर्गीय प्रदीप चालिहा, स्वर्गीय परमानंद बरबयान आदि बीते जमाने के कलाकार थे जिन्होंने सत्रिया को असम के बाहर पहचान दिलाई।
वर्तमान में प्रमुख कलाकार हैं-
घाना कांता बोरा, जतिन गोस्वामी, गुणकांत दत्ता बारबयान, माणिक बरबायन, जोगेन दत्ता बयान, अनीता सरमा, सरोदी सैकिया, हरिचरण भुइयां बोरबायन, रामकृष्ण तालुकदार, अंकेश्वर हजारिका बोरबायन आदि।


















