*पटना कलम: भारतीय लघु चित्रकला की अनूठी शैली
पटना कलम (Patna Kalam) भारतीय लघु चित्रकला की एक अनूठी और विशिष्ट शैली है, जो मुख्य रूप से बिहार के पटना क्षेत्र में विकसित हुई। यह चित्रकला मुगल और कंपनी शैली का संयोजन है, जिसमें स्थानीय प्रभाव और भारतीय विषयों का समावेश किया गया है। इस शैली का विकास 18वीं और 19वीं शताब्दी में हुआ था और इसे "पटना स्कूल ऑफ पेंटिंग" भी कहा जाता है।
पटना कलम का उद्भव
पटना कलम की कुछ प्रमुख विशेषताएँ :
1. यथार्थवादी चित्रण
- पटना कलम की सबसे बड़ी विशेषता इसका यथार्थवाद था। अन्य लघु चित्रकला शैलियों की तुलना में यह अधिक प्राकृतिक और सजीव प्रतीत होती थी।
- चित्रों में व्यक्तियों के चेहरे, पोशाक, आभूषण और हाव-भाव को बारीकी से उकेरा जाता था।
2. जलरंगों का प्रयोग
- इस शैली में मुख्य रूप से जलरंगों (वॉटरकलर) का उपयोग किया जाता था, जो कागज, मिका (संगमरमर के समान एक पतली चादर) या हाथ से बने भारतीय कागज पर चित्रित किए जाते थे।
- इसमें चमकीले रंगों की बजाय हल्के और प्राकृतिक रंगों का प्रयोग अधिक किया जाता था।
- पारंपरिक भारतीय लघु चित्रकला में गहरे रंगों और सोने-चाँदी की पालिश का इस्तेमाल होता था, लेकिन पटना कलम में हल्के रंगों का प्रयोग किया गया।
- चित्रों में प्रयुक्त प्रमुख रंग- गहरे भूरे, गहरे लाल, हल्के पीले और गहरा नीला।
- जलरंगों (वॉटरकलर) का उपयोग
3. कागज और अन्य माध्यम यथा ब्रश
- कलाकार कागज, हाथीदांत, मटका और कपड़े पर चित्र बनाते थे।
- कागज हाथ निर्मित होता था, जो रद्दी कागजों की लुग्दी से कलाकार द्वारा स्वयं तैयार किया जाता था।
- बांस से निर्मित नेपाली कागजों का भी इस्तेमाल होता था।
- कलाकार एक दो बालों वाले ब्रशों का इस्तेमाल महीन कार्यों के लिए किया करते थे। तूलिकाएँ गिलहरी के दुम के बालों से तैयार की जाती थी। कारण वे सुदृढ़ एवं मुलायम होती थी।
- मोटे कामों के लिए बकरी, सुअर अथवा भैंस की गर्दन की बालों का इस्तेमाल किया जाता था जो अपेक्षाकृत कड़े होते हैं। कड़े होने के कारण इन बालों को पहले उबाला जाता था, जिससे उसका कड़ापन कुछ कम हो जाता था, तब उसे तूलिका के लिए इस्तेमाल किया जाता था
4. रेखांकन और छायांकन शैली
- इस शैली में बारीक रेखांकन का उपयोग किया जाता था, जिससे चित्रों में सूक्ष्मता और सुंदरता उभरकर आती थी।
- पटना कलम की चित्रकारी में महीन और स्पष्ट रेखाओं का विशेष महत्व था।
- आकृतियों की रूपरेखा सटीक होती थी, जिससे चित्र में गहराई और प्रभावशीलता बढ़ती थी।
- इस शैली में छायांकन (शेडिंग) और गहराई (डेप्थ) पर अधिक ध्यान दिया गया, जिससे चित्रों में वास्तविकता का अनुभव होता था।
5. सामाजिक और व्यापारिक जीवन का चित्रण
- अन्य लघु चित्रकला शैलियों की तरह धार्मिक या पौराणिक विषयों की बजाय पटना कलम में सामान्य जनजीवन, व्यापारिक गतिविधियों, कारीगरों, किसानों, बाजारों और त्योहारों को चित्रित किया गया।
- इस शैली में बंगाल और बिहार के व्यापारियों, मजदूरों और प्रशासनिक अधिकारियों के जीवन को दर्शाया गया।
- इसमें मुख्य रूप से सामाजिक जीवन और रोजमर्रा की घटनाओं को चित्रित किया गया।
6. ब्रिटिश काल और कंपनी शैली का प्रभाव
- पटना कलम पर ब्रिटिश कंपनी शैली का प्रभाव पड़ा, जिससे इसमें यथार्थवाद (Realism) की झलक देखने को मिली।
- यूरोपीय शैली से प्रेरित होकर कलाकारों ने परछाई और प्रकाश-छाया का विशेष रूप से उपयोग करना शुरू किया
प्रमुख कलाकार
- पटना कलम शैली को विकसित करने में नक़ी अली ख़ान, गुलाम अली ख़ान, और सैयद मीरान जैसे कलाकारों का महत्वपूर्ण योगदान रहा।
- ये कलाकार स्थानीय नवाबों और अंग्रेज व्यापारियों द्वारा संरक्षण प्राप्त करते थे।
- पटना शैली के कलाकारों में सबसे पहला नाम सेवकराम (1770-1830 ई.) का है। उन्हीं के समकालीन हैं हुलासलाल (1785-1875 ई.)।
- अन्य महत्वपूर्ण चित्रकारों में प्रमुख हैं- श्री जयराम दास, शिवदयाल लाल, गुरुसहाय लाल, झुमक लाल, फीकर चंद, टुन्नी लाल आदि।
- इस चित्रकला के अंतिम कलाकार ईश्वरी प्रसाद वर्मा के पटना से कलकत्ता चले जाने के बाद बिहार में इस कला की पहचान बरकरार रखने के लिए राधामोहन बाबू ने दिन-रात अथक प्रयास किया था। इस कला शैली के पारखी राधामोहन बाबू को शहीवो (पोट्रेट) की सर्जना का आचार्य कहा जाता है। पटना कलम शैली के आखिरी संरक्षक राधामोहन बाबू की मृत्यु 1997 ई. में हो गई।
वर्तमान स्थिति और संरक्षण के प्रयास
- आधुनिक समय में यह कला शैली विलुप्त होने की कगार पर है, क्योंकि पारंपरिक कलाकारों की नई पीढ़ी ने इस कला को आगे बढ़ाने में रुचि कम दिखाई।
- सरकार और कई संस्थाएँ पटना कलम को पुनर्जीवित करने के प्रयास कर रही हैं।
- कला प्रेमियों और शोधकर्ताओं के लिए यह शैली आज भी आकर्षण का केंद्र बनी हुई है।
निष्कर्ष
पटना कलम भारतीय कला इतिहास का एक महत्वपूर्ण एवं अनूठा अध्याय है,जो समाज के वास्तविक जीवन को चित्रित करने के लिए प्रसिद्ध है साथ ही यह बिहार की सांस्कृतिक और कलात्मक धरोहर को भी दर्शाता है। यह न केवल मुगल और ब्रिटिश प्रभावों का अनूठा मिश्रण है, बल्कि भारतीय जनजीवन को चित्रित करने वाली एक महत्वपूर्ण शैली भी है। इसकी सूक्ष्मता, यथार्थवाद और विशिष्ट तकनीक इसे अन्य लघु चित्रकला शैलियों से अलग बनाती है। इसे संजोकर रखने और पुनर्जीवित करने की आवश्यकता है ताकि आने वाली पीढ़ियाँ अपनी समृद्ध कला परंपरा से परिचित हो सकें।यदि इसे सही संरक्षण और प्रचार मिले, तो यह कला फिर से अपनी पहचान बना सकती है।
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